Wednesday 4 January 2012

Shadow




 काफी दिन बीत गये थे खुद से मिले हुए
कुछ अर्से से बीत गये थे खुद को टटोले हुए.
सोचा पलट के बीते लम्हो को टटोल के देखे
आखिर ज़िन्दगी की किताब में लिखा क्या वो देखे.
देखा जब पलट के उन पन्नो को, तो न जाने क्यूँ
अपनी ही लिखावट कुछ अफगानी सी लगती है
अपनी ही कहानी कुछ बेगानी सी लगती है
अपने ही वादे अब बेमानी सी लगती है
अपनी ही यादें कुछ अनजानी सी लगती है.


दिमाग ने कहा हर घटना का कोई कारण होता है
पर दिल कहता है कुछ चीज़ें अकारण भी होती है
अजीब सी कशमकश है, किसकी माने किसकी नही
दिमाग तो अपना है पर दिल भी पराया नही.


अगले ही पल ये ख्याल आता है
वो जो बीत गया फिर क्यूँ याद आता है
जिसे बदल सकते नही फिर क्यूँ याद आता है
हम तो कबके आगे बढ़ चुके है वो क्यूँ फिर साथ आता है


फिर समझ आया की वो तो खुद का ही साया है
सूरज की ओर बढ़ते हुए पीछे पीछे ही आता है
उस साए से पीछा छुड़ाया जा सकता नही
उसके अन्धकार से सीखे बिना आगे बढ़ा जा सकता नही
-
देवश्री

No comments:

Post a Comment